Sunday 15 December 2013

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आगसी मनमें लगती है जब यार हो आँखोंसे ओझल
देखा है आसमाँ को मैंने रोज शाम जलते हुए

 

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तनहाई

रातपे उँडेल दी है काली सियाही किसीने
उसकी किस्मतमें लिखी तनहाई पर वो फिरभी मिटा न सका


 
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मैं नहीं

जिस मोड़ पर मिले थे वहीं रह गयी हूँ शायद
अब यहाँ बस जिस्म है मेरा … मैं नहीं मैं नहीं!


 
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